इतिहास की एक चर्चित दासी "भारमली"
राव मालदेव का विवाह बैसाख सुदी ४ वि.स. १५९२ को जैसलमेर के शासक राव लुनकरण की राजकुमारी उमादे के साथ हुआ था | उमादे अपनी सुन्दरता व चतुरता के लिए प्रसिद्ध थी | राठोड राव मालदेव की बारात शाही लवाजमे के साथ जैसलमेर पहुँची | राजकुमारी उमादे राव मालदेव जैसा शूरवीर और महाप्रतापी राजा को पति के रूप में पाकर बहुत प्रसन्नचित थी | विवाह संपन्न होने के बाद राव मालदेव अपने सरदारों व सम्बन्धियों के साथ महफ़िल में बैठ गए और रानी उमादे सुहाग की सेज पर उनकी राह देखती-देखती थक गई | इस पर रानी ने अपनी खास दासी भारमली जिसे रानी को दहेज़ में दिया गया था को राव जी को बुलाने भेजा | दासी भारमली राव मालदेव जी को बुलाने गई, खुबसूरत दासी को नशे में चूर राव जी ने रानी समझ कर अपने पास बिठा लिया काफी वक्त गुजरने के बाद भी भारमली के न आने पर रानी जब राव जी कक्ष में गई और भारमली को उनके आगोस में देख रानी ने वह आरती वाला थाल जो राव जी की आरती के लिए सजा रखा था यह कह कर की अब राव मालदेव मेरे लायक नही रहे उलट दिया | प्रात: काल राव मालदेव जी नशा उतरा तब वे बहुत शर्मिंदा हुए और रानी के पास गए लेकिन तब तक वह रानी उमादे रूठ चुकी थी |
और इस कारण एक शक्तिशाली राजा को बिना दुल्हन के एक दासी को लेकर वापस बारात लानी पड़ी | ये रानी आजीवन राव मालदेव से रूठी ही रही और इतिहास में रूठी रानी के नाम से मशहूर हुई |
दासी भारमली के अलावा ज्योतिषी चंडू जी भी इस रानी को दहेज़ में दिए गए थे जिन्होंने अपनी पद्धति से एक पन्चांक बनाया जो चंडू पंचांक के नाम से प्रसिद्ध हुआ | वर्तमान में चंडू जी की १९ वी. पीढी के पंडित सुरजाराम जी यह पंचांक निकालते है |
इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध जैसलमेर की उस राजकुमारी उमादे जो उस समय अपनी सुन्दरता व चतुरता के लिए प्रसिद्ध थी को उसका पति जो जोधपुर के इतिहास में सबसे शक्तिशाली शासक रहा ने क्या कभी उसे मनाने की कोशिश भी की या नहीं और यदि उसने कोई कोशिश की भी तो वे कारण थे कि वह अपनी उस सुन्दर और चतुर रानी को मनाने में कामयाब क्यों नहीं हुआ |
आज उसी रानी की दासी भारमली उसके प्रेमी बाघ जी के बारे में पढ़ते हुए मेरी इस जिज्ञासा का उत्तर भी मिला कि राव मालदेव अपनी रानी को क्यों नहीं मना पाए | ज्ञात हो इसी दासी भारमली के चलते ही रानी अपने पति राव मालदेव से रूठ गई थी | शादी में रानी द्वारा रूठने के बाद राव मालदेव जोधपुर आ गए और उन्होंने अपने एक चतुर कवि आशानन्द जी चारण को रूठी रानी उमादे को मना कर लाने के लिए जैसलमेर भेजा | स्मरण रहे चारण जाति के लोग बुद्धि से चतुर व अपनी वाणी से वाक् पटुता व उत्कृष्ट कवि के तौर पर जाने जाते है राजस्थान का डिंगल पिंगल काव्य साहित्य रचने में चारण कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है | राव मालदेव के दरबार के कवि आशानन्द चारण बड़े भावुक व निर्भीक प्रकृति व वाक् पटु व्यक्ति थे |
जैसलमेर जाकर उन्होंने किसी तरह अपनी वाक् पटुता के जरिए उस रूठी रानी उमादे को राजा मालदेव के पास जोधपुर चलने हेतु मना भी लिया और उन्हें ले कर जोधपुर के लिए रवाना हो गए | रास्ते में एक जगह रानी ने मालदेव व दासी भारमली के बारे में कवि आशानन्द जी से एक बात पूछी | मस्त कवि कहते है समय व परिणाम की चिंता नहीं करता और उस निर्भीक व मस्त कवि ने भी बिना परिणाम की चिंता किये रानी को दो पंक्तियों का एक दोहे बोलकर उत्तर दिया -
दो दो गयंद न बंधही , हेको खम्भु ठाण ||
अर्थात मान रखना है तो पति को त्याग दे और पति रखना है तो मान को त्याग दे लेकिन दो-दो हाथियों का एक ही स्थान पर बाँधा जाना असंभव है |
अल्हड मस्त कवि के इस दोहे की दो पंक्तियों ने रानी उमादे की प्रसुप्त रोषाग्नि को वापस प्रज्वल्लित करने के लिए धृत का काम किया और कहा मुझे ऐसे पति की आवश्यकता नहीं | और रानी ने रथ को वापस जैसलमेर ले जाने का आदेश दे दिया |
बारहट जी (कवि आशानन्द जी) ने अपने मन में अपने कहे गए शब्दों पर विचार किया और बहुत पछताए भी लेकिन वे शब्द वापस कैसे लिए जा सकते थे |
जोधपुर के राव मालदेव का विवाह जैसलमेर के रावल लूणकरणजी की राजकुमारी उमादे के साथ हुआ था | सुहागरात्रि के समय उमादे को श्रृंगार करते देर हो गई तो उसने अपनी दासी भारमली को कुछ देर के लिए मालदेव जी का जी बहलाने के लिए भेजा | भारमली इतनी सुन्दर थी कि उसके रूप लावण्य को देख नशे में धुत मालदेव जी अपने आप को न बचा सके |
श्रृंगार करने के बाद जब उमादे आई और उसने मालदेव जी भारमली के साथ देखकर यह कहकर वापस चली गयी कि ये पति मेरे लायक नहीं है | और वो जीवन भर रूठी ही रही | राव मालदेव ने जोधपुर आने के बाद अपने एक कवि आशानन्द जी बारहट को रानी को मनाने भेजा पर वे भी रानी मनाने में असमर्थ रहे | इस पर कवि आशानन्द जी बारहट ने जैसलमेर के रावत लूणकरणजी से कहा कि अपनी पुत्री का भला चाहते है तो दासी भारमली को जोधपुर से वापस बुलवा लीजिए |
रावत लूणकरण जी ने एसा ही किया और भारमली को उन्होंने जोधपुर से जैसलमेर बुलवा भेजा पर स्वयम लूणकरण जी भारमली के रूप और लावण्य पर मुग्ध हो गए जिससे लूणकरण जी की दोनों रानियाँ ने परेशान होकर भारमली को जैसलमेर से हटाने की सोची | लूणकरण जी की पहली रानी सोढ़ी जी ने उमरकोट अपने भाइयों से भारमली को ले जाने के लिए कहा लेकिन उमरकोट के सोढों ने लूणकरण जी से इस बात पर शत्रुता लेना उचित नहीं समझा |तब लूणकरण जी की दूसरी रानी जो जोधपुर के मालानी परगने के कोटडे के शासक बाघ जी राठौड़ की बहन थी ने अपने भाई बाघ जी को बुलाया |
बहन का दुःख मिटाने हेतु बाघजी शीघ्र आये और रानियों के कथनानुसार भारमली को ऊंट पर बैठकर जैसलमेर से छिपकर भाग आये | लूणकरण जी कोटडे पर हमला तो कर नहीं सकते थे क्योंकि पहली बात तो ससुराल पर हमला करने में उनकी प्रतिष्ठा घटती और दूसरी बात राव मालदेव जैसा शक्तिशाली शासक मालानी का संरक्षकथा | अत: रावत लूणकरण जी ने जोधपुर के ही कवि आशानन्द जी बारहट को कोटडा भेजा कि बाघजी को समझाकर भारमली को वापस ले आये |
दोनों रानियों ने बाघ जी को पहले ही सन्देश भेजकर सूचित कर दिया कि वे बारहट जी की बातों में न आना | जब बारहट जी कोटडा पहुंचे तो बाघजी ने उनका बड़ा स्वागत सत्कार किया और बारहट जी की इतनी खातिरदारी की कि वे अपने आने का उद्देश्य ही भल गए | एक दिन बाघजी शिकार पर गए ,बारहट जी व भारमली भी साथ थे | भारमली व बाघजी में असीम प्रेम हो गया था अत: वह भी किसी भी हालत में बाघजी को छोड़कर जैसलमेर नहीं जाना चाहती थी | शिकार के बाद भारमली ने सूलें सेंक कर खुद विश्राम स्थल पर बारहट जी दी व शराब आदि भी पिलाई | इससे खुश होकर व बाघजी व भारमली के बीच प्रेम देखकर बारहट जी का भावुक-कवि- हृदय बोल उठा -
जंह बाघा तंह भारमली ,जंह दारु तंह मंस |
अर्थात जहाँ पहाड़ होते है वहां मोर होते है ,जहाँ सरवर होता है वहां हंस होते है इसी प्रकार जहाँ बाघ जी है वहीँ भारमली होगी ठीक उसी तरह जिस तरह जहाँ दारू होती है वहां मांस भी होता है |
बारहट की यह बात सुन बाघजी ने झट से कह दिया ,बारहट जी आप बड़े है और बड़े आदमी दी हुई वास्तु को वापिस नहीं लेते अत: अब भारमली को मुझसे न मांगना | आशानन्द जी बारहट पर वज्रपात सा हो गया लेकिन बाघजी ने बात सँभालते हुए कहा - कि आपसे एक प्रार्थना और है आप भी मेरे यहीं रहिये |
और इस तरह से बाघजी ने कवि आशानन्द जी बारहट को मनाकर भारमली को जैसलमेर ले जाने से रोक लिया | आशानन्द जी भी कोटडा रहे और उनकी व बाघजी जी की भी इतनी घनिष्ट दोस्ती हुई कि वे जिन्दगी भर बाघजी को भुला ना पाए | एक दिन अकस्मात बाघजी का निधन हो गया , भारमली बाघजी के शव के साथ चिता में बैठकर सती हो गई और आशानन्द जी अपने मित्र बाघजी की याद में जिन्दगी भर बैचेन रहे और उन्होंने बाघजी की स्मृति में अपने उदगारों के पीछोले बनाये |
अति सुन्दर जानकारी
ReplyDeleteMahoday... Ruthi rani ka mahal ajmer me hai ya jodhpur me??
ReplyDeleteAjmer
Deleteअद्धभुत लेखनी । आशानंद जी जैसे चारणों के कारण आज भी राजपूत समाज के लोग चारण जाती का सम्मान करते है । जो उनका बड़पन है ....
ReplyDeleteबाड़जी रो हियों काचो हतो केनो ही दुखी नी देखनो चाहतो इये कारण रानी साहिब को मालदेव की हकीकत बताई ....👍👌
वास्तव में अद्भुत
ReplyDeleteरजवाड़े उपजे सुरमा,चारण उपजे शान
ReplyDeleteआधा रजवाड़ा जोरगा,आधा राज मुसाण।